देवव्रत (भीष्म)


कुछ विद्वान मानते हैं कि देवव्रत (भीष्म) को का खलनायक माना जाना चाहिए। भीष्म ने अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका की भावनाओं को कुचलकर जो कार्य किया वह अमानवीय था। भीष्म ने ऐसे कई अपराध किए, जो किसी भी तरह से धर्म द्वारा उचित नहीं थे इसलिए कहा जाता है कि वे अधर्म के साथ होने के कारण आदर्श चरित्र नहीं हो सकते। भीष्म अपने पिछले जन्म में एक वसु थे और एक शाप के चलते उन्हें इस जन्म में मनुष्य बनकर कष्ट झेलना थे।
                                                                 #
* आठ वसु भाइयों में से एक 'द्यु' नामक वसु ने एक बार वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु का हरण कर लिया। इससे वशिष्ठ ऋषि ने द्यु से कहा कि ऐसा काम तो मनुष्य करते हैं इसलिए तुम आठों वसु मनुष्य हो जाओ। यह सुनकर वसुओं ने घबराकर वशिष्ठजी की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि अन्य वसु तो वर्ष का अंत होने पर मेरे शाप से छुटकारा पा जाएंगे, लेकिन इस 'द्यु' को अपनी करनी का फल भोगने के लिए एक जन्म तक मनुष्य बनकर पीड़ा भोगना होगी। यही द्यु बाद में गंगा की कोख से देवव्रत के रूप में जन्मे। यही देवव्रत आगे चलकर पितामह भीष्म कहलाए।
#
* शांतनु सत्यवती के रूप और सौंदर्य से मुग्ध होकर उससे प्यार करने लगे थे और वे उससे विवाह करना चाहते थे लेकिन सत्यवती ने उनके समक्ष ऐसी शर्त रख दी थी जिसे कि वे पूरी नहीं कर सकते थे। इसके कारण वे दुखी और उदास रहते थे। जब भीष्म को इसका कारण पता चला तो उन्होंने सत्यवती की शर्त मानकर अपने पिता शांतनु का विवाह सत्यवती से करवा दिया था। सत्यवती के कारण ही भीष्म को आजीवन ब्रह्मचर्य रहने की कसम खानी पड़ी थी। कसम खाने के बाद उन्होंने हस्तिनापुर की गद्दी पर कुरुवंश का शासन बरकरार रखने के लिए कई तरह के अपराध किए थे।
#
1.सत्यवती के कहने पर ही भीष्म ने काशी नरेश की 3 पुत्रियों (अम्बा, अम्बालिका और अम्बिका) का अपहरण किया था। बाद में अम्बा को छोड़कर सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य से अम्बालिका और अम्बिका का विवाह करा दिया था।
#
2.गांधारी और उनके पिता सुबल की इच्छा के विरुद्ध भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से करवाया था। माना जाता है कि इसीलिए गांधारी ने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। आखिर अंत में गांधारी को दावाग्नि में जलकर खुद के प्राणों का अंत करना पड़ा था।
#
3.भरी सभा में जब द्रौपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था तो भीष्म चुप बैठे थे। भीष्म ने जानते-बुझते दुर्योधन और शकुनि के अनैतिक और छलपूर्ण खेल को चलने दिया। शरशैया पर भीष्म जब मृत्यु का सामना कर रहे थे, तब भीष्म ने द्रौपदी से इसके लिए क्षमा भी मांगी थी।
#
4.जब कौरवों की सेना जीत रही थी ऐसे में भीष्म ने ऐन वक्त पर पांडवों को अपनी मृत्यु का राज बताकर कौरवों के साथ धोखा किया था?
#
*भीष्म ने शरशैया पर लेटे हुए पूछा श्रीकृष्ण से कि हे मथुसुदन मेरे ये कौन से कर्मों का फल है जो मुझे बाणों की शैया मिली? तब श्रीकृष्ण ने कहा, पितामह आपा अपने पिछले 101वें जन्म जब एक राजकुमार थे तब आप एक दिन शिकार पर निकले थे। उस वक्त एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरकर आपके घोड़े के अग्रभाग पर बैठा था।
#

भीष्म ने आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जाकर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गए। करकैंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकैंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूं, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'
* अपने अगले पिछले जन्म में भीष्म द्वारा इतने पाप करने के बाद भी भीष्म को किसी भी तरह से खलनायक नहीं माना जा सकता, क्योंकि भीष्म ने जो भी किया वह हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा और कुरुवंश को बचाने के लिए किया था, तो फिर महाभारत का सबसे बड़ा खलनायक कौन था?
#
#

किस श्राप के कारण 18 दिन तक भीष्म पितामह को तीरों की सेज पर सोना पड़ा ? 



श्री कृष्ण द्वारा दिए गए 

जवाब

बात प्राचीन महाभारत काल की है। महाभारत के युद्ध में जो कुरुक्षेत्र के मैंदान में हुआ, जिसमें अठारह अक्षौहणी सेना मारी गई, इस युद्ध के समापन और सभी मृतकों को तिलांज्जलि देने के बाद पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर को वापिस हुए।
तब श्रीकृष्ण को रोक कर पितामाह ने श्रीकृष्ण से पूछ ही लिया, "मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं सरसैया पर पड़ा हुआ हूँ?'' यह बात सुनकर मधुसूदन मुस्कराये और पितामह भीष्म से पूछा, 'पितामह आपको कुछ पूर्व जन्मों का ज्ञान है?'' इस पर पितामह ने कहा, 'हाँ''। श्रीकृष्ण मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया |
इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराये और बोले पितामह आपने ठीक कहा कि आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन एक सौ एक वें पूर्वजन्म में आज की तरह तुमने तब भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य कर्मों से बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे, लेकिन उस जन्म में जब तुम युवराज थे, तब एक बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बेरिया के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गये क्योंकि पीठ के बल ही जाकर गिरा था? करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'' तो, हे पितामह भीष्म! तुम्हारे पुण्य कर्मों की वजह से आज तक तुम पर करकेंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया। लेकिन हस्तिनापुर की राज सभा में द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप सक्षम थे उस अबला पर अत्याचार रोकने में, लेकिन आपने दुर्योधन और दुःशासन को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकेंटा का 'श्राप' आप पर लागू हो गया।
अतः पितामह प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ेगा। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है।